Political relationship: प्राचीन राजा-महाराजाओं से लेकर मुग़ल साम्राज्य तक राजाओं के शासन करने की शैली या तो तानशाही रही है या प्रजाहितेशी रही है | किन्तु दोनों ही पहलुओं में युद्ध करके या संधि करके शासक अपना शासन जनता पर किया करते थे |
एक और मजे की बात यह है कि राजा का पुत्र ही अधिकाँशतः राज्य का अगला उत्तराधिकारी होता था और इसी वंशानुगत राजनीति के कारण जनता के पास और कोई विकल्प नहीं हुआ करता था और न ही चुनाव जैसी कोई पद्धति | एक और ख़ास बात थी इन राजाओं के शासनकाल में कि ये राजा अपने मान-सम्मान और शर्तों के लिए अपना सर्वस्व त्याग देते थे मगर अपनी शर्तों और कसमों से विमुख नहीं होते थे |
इतिहास पढ़ते-पढ़ते हम सभी इतना तो जान ही गये है कि राजनीति किस चिड़िया का नाम है ? और यूँ भी हमारी प्राथमिक शिक्षा के दो अभिन्न विषय जो कि हम सभी पड़ते है एक इतिहास और दूसरा नागरिक शास्त्र (राजनीति शास्त्र) | और आज के इस बदलते राजनितिक परिवेश में बच्चा-बच्चा तकनीकी और दूरसंचार के कारण अपने देश की राजनीति को बहुत ही करीब से समझ और देख रहा है | इस इक्कीसवीं सदी में शिक्षित राजनीतिज्ञ का जब से राजनीति में पदार्पण हुआ है तब से “काला अक्षर भेंस बराबर” वाले राजनेताओं की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई है |
लेकिन क्या आज की आधुनिक राजीनीति जनहित,देशहित और “परहित सरस धर्म नहिं” भाई पर आधारित है ? बेशक, बिलकुल नहीं और ना ही पहले थी | और यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि आज की आधुनिक राजनीति महज मुख़ और मुखौटे की राजनीति बन गई है जहाँ न मान-सम्मान है, न इमानदारी की कोई खान है, और वादा खिलाफ़ी तो चरम पर है | शान में गुस्ताखी तो जैसे फ़ेशन बन गया है |
एक कहावत और इस आधुनिक राजनीति के परिदृश्य में सार्थक होती है कि “झूठ बोलो, जल्दी बोलो और जोर से बोलो” और इसी कर्मकांड में आधुनिक नेताओं को महारत हासिल हो गई है | ये कहना भी गलत ना होगा कि मुखमाया अपनाकर आज एरे-गेरे नत्थूखेरे भी सत्ता के शासक हो गए और बचे-कुचे सफ़ेदपोश चटोरे-चापलूस हो गए | अब मुद्दे की बात यह है की जनता का माई-बाप कौन? कहते है जनता तो जनार्दन होती है मगर हमेशा चुनावों में गुमराह रहती है और कोई न कोई टोपीधारी, सफ़ेद बगुला मौका देख के चौका मार जाता है और जनता हर बार ख्याली पुलाव खाकर अगले पांच साल के लिए फिर सो जाती है |
Political relationship
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इस आधुनिक राजनीति ने आज व्यक्तिगत राजनीति का रूप ले लिया है हालांकि नारे जरुर ऐसे लगते है कि “अबकी बार ये सरकार, अबकी बार वो सरकार” मगर हर बार सरकार बेकार-ऐसा जनता हर बार, बार-बार कहती है | समसामयिक तौर पर कुल मिलाकर इस आधुनिक राजनीति के परिदृश्य को शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता और ना ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है, एक लेखक होने के नाते बस इतना कहना “Feel Good” हो कि भय्या ये तो मदारी का खेल है, कभी बंदर को देखो, कभी मदारी को देखो और पैसा फेंको तमाशा देखो |
शब्द्नाद [email protected]ज्ञात